रूद्राष्टाध्यायी का हिन्दी पदानुवाद
अध्याय-3
।।उश्णिक छंंदाा
शिघ्रगामी व तीक्ष्ण, वज्र तो है जिनके ।
वर्षा के ही समान, उपमा है जिनके ।।1।।
अतिशय घातक, शत्रु के भयकारी ।
बहु गर्जन कर्ता, नर के क्षोभकारी ।।2।।
अपलक रहते, वह देव तो सदा ।
जो होते ही नही है, असावधान कदा ।।3।।
सैकड़ो सेनाओं को, एक साथ जीत ले ।
अद्वितय जो वीर, लड़े सृष्टि हित ले ।।4।।
हे नर तन धारी, सावधान हो सुनो ।
हे युद्व अभिलाषी, ऐसे देव को चुनो ।।5।।
भय रहित हो जो, रहे युद्व विजेता ।
एकाग्र चित्त हो जो, इंद्रीय के हो ध्येता ।।6।।
धनुश-बाण हाथ, धारण जो हैं किये ।
जयशील अजेय, जो कामना हैं दिये ।।7।।
शत्रु समूह को जो, क्षण में जीत सके ।
ऐसे इन्द्र देव हैं, जो युद्ध से ना थके ।।8।।
ऐसे इन्द्र देव से, शक्ति आप लीजिये ।
करके शत्रु नाष, वशीभूत कीजिये ।।9।।
यजमानों के यज्ञ, सोममान करते जो ।
बाहुबली शत्रु को, विनिष्ट करते वो ।।10।।
हे इन्द्र देव आप, हमारी रक्षा करें ।
नष्ट कर संताप, खुशियां झाोली भरें ।।11।
हे बृहस्पते आप, दैत्यों का नाश करें ।
हो कर रथारूढ़, धनुष हाथ धरें ।।12।।
शत्रु सेना को आप, ऐसे विदिर्ण करें ।
वज्र घात से शत्रु, दारूण आह भरें ।।13।।
हिंसक शत्रु मार, आप हुॅंकार भरें ।
ऐसे शत्रु से आप, हमारी रक्षा करें ।।14।।
हे इन्द्र देव आप, देव पुरातन हो।
अपनी महिमा से, देव सनातन हो ।।15।।
हे इन्द्र देव आप, अतिशय शूर हो ।
युद्ध भूमि में आप, अतिशय क्रूर हो ।।16।।
चारों ओर से आप, योद्धाओं से युक्त हो ।
परिचारिकाओं से, आप तो आवृत्त हो ।।17।।
बल के जाये आप, बलिष्टकारक हो ।
स्तुति के प्रिय पात्र, अस्तुतिकारक हो ।।18।।
हे शत्रु तिस्कारक, विजयी रथ चढ़े ।
शत्रुओं के बल को, निपुणता से पढ़े ।।19।।
हे इन्द्र सम देव, आप देव कहाये ।
इनके समान ही, आप तो जन्म पाये ।।20।।
हे देव देव देव, असुरों के नाशक ।
वेदवाणी के ज्ञाता, इंद्रियों के शासक ।।21।।
ऐसे इन्द्र देव के, उत्साह को बढ़ायें ।
देव सभी अपना, मनोबल चढ़ाये ।।22।।
शत्रुओं के प्रति जो, दयाहीन हो जाते ।
पराक्रम सम्पन्न, नाना क्रोध जगाते ।।23।।
नष्ट न होने वाले, शत्रु के संहारक ।
शत यज्ञ करता, धर्म के विस्तारक ।।24।।
नश्ट नही होते जो, कभी भी दूसरों से ।
प्रहरित न होते, जो कभी दूसरों से ।।25।।
शत्रु सेना का वह, अब विनाश करें ।
हमारी सेना में वें, नई विश्वास भरें ।।26।।
बृहस्पति व इन्द्र, देवसेना के नायक ।
शत्रु मर्दन करता, विजय के दायक ।।27।।
यज्ञपुरूष विष्णु, चलें इनके आगे ।
सोम और दक्षिणा, चलें इनके आगे ।।28।।
मरूद्गण सकल, चलें इनके आगे ।
शुभ सकल शुभ, चलें इनके आगे ।।29।।
हे देवगण सारे, जय दिलाने वालों
सारे लोकों को नाश, कर सकने वालों ।।।30।।
हे द्वादश आदित्य, हे मरूद्गण उन्चास ।
कामना देनेवालों, जगाइये विश्वास ।।31।।
इन्द्र सभा से उठे, जयनाद का घोष ।
इन्द्र वरूण को, करते पारितोष ।।32।।
हे इन्द्र देव आप, सुसज्जित होइये ।
निज शस्त्रों को आप, कर में पिरोइये।।33।।
हमारे सैनिकों को, हर्षित आप करें ।
अधिकाधिक गति, अपने अश्व भरें ।।34।।
आरूढ़ हो आप, निज विजयी रथ ।
जय घोष करके, बढ़ चलें सुपथ ।।35।।
टकराये पताका, शत्रुुओं से जब ही ।
हमारी रक्षा आप, स्वयं करें तब ही ।।36।।
हमारे धनु-बाण, विनिष्ट उन्हें करे ।
हमारे वीर सैैनिक, श्रेष्ठता सिद्ध करे ।।37।।
हे देवगण सारे, रक्षा करें हमारी ।
युद्ध भूमि में देव, विजय हो हमारी ।।38।।
शत्रुओं के प्र्राण के, हे कष्टकारी व्याधी ।
वैरियो के चित्त को, हरें कर अनाधि ।।39।
सिर आदि अंगों को, आप ग्रहण करें ।
फिर यहां से आप, अन्यत्र चले चलें ।।40।।
एक बार फिर से, समीप में जाइये।
शत्रु के हृदय में, शोक तो जगाइये ।।41।।
जोे हों शत्रु हमारे, अंधकार से घिरें ।
घनघोेर अंधेरा, वे यत्र-तत्र फिरेें ।।42।।
वेेद मन्त्रों से तीक्ष्ण, हे ब्रह्मास्त्र महान ।
प्र्रक्षिप्त हो मुझसे, हरें शत्रु केे प्र्राण ।।43।।
हे वीर सेनानियों, आकर टूट पड़ों।
शत्रुदल में आप, विजयघोष करों ।।44।।
करेंगे कल्याण, आपका इन्द्र देव ।
अपनी भुजाओं में, शक्ति उन से लेव ।।45।।
जिससे किसी प्रकार, कुछ आशंका ना हो ।
शत्रुओं सेे कभी भी, पराजय ना तो हो ।।46।।
हे मरूद्गण देव, कृपा आप कीजिये ।
शत्रु सेना में आप, तम भर दीजिये ।।47।।
शत्रु जो बढ़ रहेें, स्पर्धा करतेे हुये ।
अपने बाहु पर, बल भरते हुये ।।48।।
अकर्मण्यता तम, उनमें आप भरें ।
एक दूजे को भूल, स्वयं वें लड़ मरें ।।49।।
फैली हुई शिखा ले, बालक जैसे घूमे ।
शत्रुओं के बाण जो, ऐसे गगन चूमे ।।50।।
ऐसी दशा मेें फिर, अदिति रक्षा करे ।
हे गुरू बृहस्पति, हे इन्द्र रक्षा करें ।।51।।
हे सर्व देवगण, हमारी रक्षा करें ।
विजय दिलकार, देव कल्याण करें ।।52।।
हेे मेरे यजमान, तुम्हारा कल्याण हो ।
मर्मस्थान आपके, अब सुरक्षित हो ।।53।।
विप्रों के राजा सोम, मृत्यु से ले बचावें ।
वरूणजी आपको, कवच पहनावें ।।54।।
उत्कृष्ट से उत्कृष्ट, कवच जो बनावें ।
सकल देवगण, विजयश्री दिलावें ।।55।।
।।तीसरा अध्याय पूर्ण ।।